गंगा चालीसा के पाठ का हिन्दू धर्म में बहुत महत्व है। गंगा चालीसा एक भक्ति काव्य है जो माँ गंगा की महिमा और उनकी कृपा का वर्णन करता है। गंगा चालीसा का पाठ करने से आत्मा की शुद्धि होती है। यह माना जाता है कि गंगा माँ के नाम का उच्चारण करने से मन और आत्मा पवित्र होते हैं।
हिन्दू मान्यताओं के अनुसार, माँ गंगा के नाम का स्मरण और उनके गुणों का गान करने से व्यक्ति के पाप धुल जाते हैं। गंगा चालीसा का नियमित पाठ करने से व्यक्ति को धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति होती है। यह सभी चार पुरुषार्थों को प्राप्त करने का साधन माना जाता है।गंगा चालीसा का पाठ मन को शांत और स्थिर बनाता है। यह तनाव और चिंता को दूर करने में सहायक होता है।धार्मिक ग्रंथों के अनुसार, गंगा चालीसा के पाठ से व्यक्ति के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य में सुधार होता है। गंगा चालीसा के पाठ से व्यक्ति को माँ गंगा की विशेष कृपा प्राप्त होती है। यह माना जाता है कि गंगा माँ अपने भक्तों की सभी मनोकामनाओं को पूर्ण करती हैं।गंगा चालीसा के पाठ से घर में सुख, शांति और समृद्धि आती है। परिवार के सभी सदस्यों के बीच प्रेम और सद्भावना बनी रहती है।
इस प्रकार, गंगा चालीसा का पाठ हिन्दू धर्म में न केवल आध्यात्मिक और धार्मिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है, बल्कि यह व्यक्ति के संपूर्ण जीवन को सकारात्मक दिशा में मार्गदर्शित करता है।

गंगा चालीसा पाठ

॥ दोहा॥

जय जय जय जग पावनी,
जयति देवसरि गंग।

जय शिव जटा निवासिनी,
अनुपम तुंग तरंग॥

॥ चौपाई ॥

जय जय जननी हरण अघ खानी।
आनंद करनि गंग महारानी॥

जय भगीरथी सुरसरि माता।
कलिमल मूल दलनि विख्याता॥

जय जय जहानु सुता अघ हनानी।
भीष्म की माता जगा जननी॥

धवल कमल दल मम तनु साजे।
लखि शत शरद चंद्र छवि लाजे॥

वाहन मकर विमल शुचि सोहै।
अमिय कलश कर लखि मन मोहै॥

जड़ित रत्न कंचन आभूषण।
हिय मणि हर, हरणितम दूषण॥

जग पावनि त्रय ताप नसावनि।
तरल तरंग तंग मन भावनि॥

जो गणपति अति पूज्य प्रधाना।
तिहूं ते प्रथम गंगा स्नाना॥

ब्रह्म कमंडल वासिनी देवी।
श्री प्रभु पद पंकज सुख सेवि॥

साठि सहस्त्र सागर सुत तारयो।
गंगा सागर तीरथ धरयो॥

अगम तरंग उठ्यो मन भावन।
लखि तीरथ हरिद्वार सुहावन॥

तीरथ राज प्रयाग अक्षैवट।
धरयौ मातु पुनि काशी करवट॥

धनि धनि सुरसरि स्वर्ग की सीढी।
तारणि अमित पितु पद पिढी॥

भागीरथ तप कियो अपारा।
दियो ब्रह्म तव सुरसरि धारा॥

जब जग जननी चल्यो हहराई।
शम्भु जाटा महं रह्यो समाई॥

वर्ष पर्यंत गंग महारानी।
रहीं शम्भू के जटा भुलानी॥

पुनि भागीरथी शंभुहिं ध्यायो।
तब इक बूंद जटा से पायो॥

ताते मातु भइ त्रय धारा।
मृत्यु लोक, नाभ, अरु पातारा॥

गईं पाताल प्रभावति नामा।
मन्दाकिनी गई गगन ललामा॥

मृत्यु लोक जाह्नवी सुहावनि।
कलिमल हरणि अगम जग पावनि॥

धनि मइया तब महिमा भारी।
धर्मं धुरी कलि कलुष कुठारी॥

मातु प्रभवति धनि मंदाकिनी।
धनि सुरसरित सकल भयनासिनी॥

पान करत निर्मल गंगा जल।
पावत मन इच्छित अनंत फल॥

पूर्व जन्म पुण्य जब जागत।
तबहीं ध्यान गंगा महं लागत॥

जई पगु सुरसरी हेतु उठावही।
तई जगि अश्वमेघ फल पावहि॥

महा पतित जिन काहू न तारे।
तिन तारे इक नाम तिहारे॥

शत योजनहू से जो ध्यावहिं।
निशचाई विष्णु लोक पद पावहिं॥

नाम भजत अगणित अघ नाशै।
विमल ज्ञान बल बुद्धि प्रकाशै॥

जिमी धन मूल धर्मं अरु दाना।
धर्मं मूल गंगाजल पाना॥

तब गुण गुणन करत दुख भाजत।
गृह गृह सम्पति सुमति विराजत॥

गंगाहि नेम सहित नित ध्यावत।
दुर्जनहुँ सज्जन पद पावत॥

बुद्दिहिन विद्या बल पावै।
रोगी रोग मुक्त ह्वै जावै॥

गंगा गंगा जो नर कहहीं।
भूखे नंगे कबहु न रहहि॥

निकसत ही मुख गंगा माई।
श्रवण दाबी यम चलहिं पराई॥

महाँ अधिन अधमन कहँ तारें।
भए नर्क के बंद किवारें॥

जो नर जपै गंग शत नामा।
सकल सिद्धि पूरण ह्वै कामा॥

सब सुख भोग परम पद पावहिं।
आवागमन रहित ह्वै जावहीं॥

धनि मइया सुरसरि सुख दैनी।
धनि धनि तीरथ राज त्रिवेणी॥

कंकरा ग्राम ऋषि दुर्वासा।
सुन्दरदास गंगा कर दासा॥

जो यह पढ़े गंगा चालीसा।
मिली भक्ति अविरल वागीसा॥

॥ दोहा ॥

नित नव सुख सम्पति लहैं।
धरें गंगा का ध्यान।
अंत समय सुरपुर बसै।
सादर बैठी विमान॥